child development and Pedagogy /bal vikas or shiksha shastra pdf in Hindi
child development and Pedagogy/ vikas pdf Test in Hindi for All Exams ,Ctet/mptet/uptet/Rtet
child development and Pedagogy /bal vikas or shiksha shastra pdf in Hindi
PART -12
विकास की अवस्थाये – बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं को विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने – अपने ढंग से परिभाषित किया है। जिसमे कुछ मनोवैज्ञानिक प्रमुख है। जैसे कि – जीन पियाजे , कोहलवर्ग और व्यागोट्स्की जिनसे हमारी प्रतियोगी परीक्षाओ जैसे कि – TET एग्जाम में तथा अन्य बीएड परीक्षाओ में इनसे सम्बंधित प्रश्न पूछे जाते है। अतः इन मनोवैज्ञानिकों के जो विकास के सम्बन्ध में कथन है ,वे हमारे परीक्षाओ की दृस्टि से बहुत मायने रखते है।
(1 ) जीन पियाजे – ” जीन पियाजे ” स्विटज़रलैंड के एक मनोवैज्ञानिक थे। बालको में बुद्धि के विकास को समझने के लिए उन्होंने उन्होंने अपने बच्चो के ऊपर खोज की। इन्होने अपने अध्ययन के द्वारा ही मनोविज्ञान विषय में ” विकास की अवस्थाओं ” को विस्तृत रूप में समझया है। जिससे हम आज के आधुनिक बाल – विकास विषय में इस ओर भी ध्यान केंद्रित कर पाए।
(i ) जीन पियाजे के अनुसार– ” जब तक बालक किशोर अवस्था तक नहीं पहुंच जाता है , तक तक वह भिन्न – भिन्न विकास की अवस्थाओं में भिन्न – भिन्न वर्गों में कार्यात्मक क्रिया का अर्जन करता है। “
(ii ) जीन पियाजे के अनुसार- ” ज्ञानात्मक विकास केवल नक़ल न होकर खोज पर आधारित होता है। “
(iii ) जीन पियाजे के अनुसार– ” सात्मीकरण बालक के प्रत्यक्षात्मक , गत्यात्मक , समन्वय से सम्बंधित होता है। “
(iv) पियाजे के अनुसार विकास की चार प्रकार की अवस्थाये होती है। जो इस प्रकार है।
(i ) इन्द्रियजनित गामक अवस्था – इन्द्रियजनित गामक अवस्था का समय – काल बालक के जन्म से 24 महीने यानी कि लगभग – 2 वर्ष तक का होता है। इस आयु में उस बालक की बुद्धि उसके कार्यो से पता चलती है। पियाजे ने इसे एक बहुत अच्छे उदाहरण के द्वारा समझाया है।
जैसे कि -” एक बालक को खिलौने चाहिए , जो कि किसी चादर के ऊपर रखे है। परन्तु वहां तक उस बालक का हाथ नहीं पहुंच रहा है। इसलिए बालक उन खिलौनों को प्राप्त करने के लिए चादर को अपनी ओर खींचता है , और उन खिलौनों को प्राप्त कर लेता है। ” पियाजे के अनुसार यह प्रक्रिया – बौद्धिक कार्य के अंतरगर्त आती है।
(ii ) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था – पूर्व संक्रियात्मक अवस्था का समय काल – बालक की आयु के दो वर्ष (2 वर्ष ) की उम्र से प्रारम्भ होकर – (7) सात वर्ष की उम्र तक होता है।
→ पूर्व संक्रियात्मक अवस्था में बालक को नवीन अनुभव प्राप्त होते है। साथं ही बालक नयी – नयी जानकारियां प्राप्त करता है।
→ बालक पूर्व अवस्था से थोड़ा सा अधिक समस्याओ को हम करने लगता है , अथवा उनको हल करने की कोशिस करने लगता है।
→ इस अवस्था में बालक की भाषा का विकास होता है। , साथ ही उससे भाषा सम्बन्धी अधिक – शब्दों का ज्ञान होने लगता है।
→ इस अवस्था में बालक “आत्मकेंद्रित ” होता है।
➨पियाजे के अनुसार – ” 6 वर्ष से काम आयु के बालको में “संज्ञानत्मक – परिपक्वता ” का आभाव पाया जाता है। इस आभाव के कारण वे परम्परागत समस्याओ को तभी सीख पाते है , जबकि उन्हें शिक्षण और प्रशिक्षण दिया जाए। “
(iii ) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था – यह अवस्था (7) सात वर्ष की उम्र से आरम्भ होकर 11 वर्ष की उम्र तक रहती है। अर्थात इस अवस्था का समयकाल – सात वर्ष से 11 वर्ष तक का होता है। इस अवस्था की विभिन्न विशेषताएँ होती है , जो कि इस प्रकार है।
→ इस अवस्था में बालक यह समझता है कि – भार , अंक , और लम्बाई स्थिर होते है।
→ इस अवस्था में बालक पर्यावरण को भी समझने लगता है।
(iv )- अमूर्त – संक्रियात्मक अवस्था – इस अवस्था का समय काल बालक के जीवन में – 11 वर्ष से प्रोढ़ावस्था तक का होता है। इस अवस्था में बालक में निम्नलिखित विशेषताये पायी जाती है। जो कि इस प्रकार है।
→ इस अवस्था में बालक विभिन्न तरह की समस्याओ को समझ सकता है , साथ ही वो उन समस्याओ पर अधिक प्रभावी ढंग से विचार कर पाता है।
➦ जीन पियाजे के अनुसार – ” कोई बालक जिस अवस्था में अपने परिवेश की वस्तुओ को पहचाने अथवा उनमे विभेद करने लगता है। वह अवस्था उस बालक की पूर्व – संक्रियात्मक अवस्था कहलाती है। ”
➦ जीन पियाजे के अनुसार – ” किसी बालक के विचारो में नए विचारो के समावेश हो जाने को सात्मीकारण कहते है। ”
➦ जीन पियाजे के अनुसार – ”
लारेन्स कोलबर्ग
लारेन्स कोलबर्ग– लारेंस कोलबर्ग एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक थे। जिन्होने बालक के ” नैतिक विकास के चरण ” पर अपने विचार प्रकट किये है। जो कि इस प्रकार है।
➨ लारेन्स कोलबर्ग के अनुसार – ” बालको में नैतिकता अथवा चरित्र जे विकास की कुछ अवस्थाये पायी जाती है। वे अवस्थाये इस प्रकार है।
(i ) पूर्व नैतिक अवस्था – इस अवस्था का समयकाल – चार (4 ) वर्ष की उम्र से प्राम्भ होता है , और 10 वर्ष तक की अवस्था तक होता हैं।
(ii ) परम्परागत नैतिक अवस्था – कोलबर्ग के अनुसार इस अवस्था का समयकाल बालक के जीवन में – 10 वर्ष की उम्र से आरम्भ होकर – 13 (तेरह ) वर्ष तक की उम्र तक रहता है।
(iii ) आत्म – अंगीकृत नैतिक मूल्य अवस्था – कोलबर्ग के अनुसार इस अवस्था का समयकाल – 13 (तेरह ) वर्ष से आरम्भ होता है ,और प्रौढ़ावस्था तक निरंतर चलता रहता है।
लिव वाइगोत्स्की
लिव वाइगोत्स्की- लिव वाइगोत्स्की सोवियत संघ वर्तमान रूस के मनोवैज्ञानिक थे। इन्होने बालकों के सामाजिक विकास से सम्बंधित सिद्धांत दिए।
➨ लिव वाइगोत्स्की के सिद्धांत के अनुसार – ” बालक के प्रत्येक विकास स्तर पर उसके समाज का विशेष योगदान होता है।समाज से अन्तः क्रिया के फलस्वरूप ही उसमे विभिन्न तरह का विकास होता है। “
➨ लिव वाइगोत्स्की के सिद्धांत के अनुसार – ” किसी बालक के विकास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान समाज का होता है। “
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते है , कि – बालक का समाज जैसा भी होगा अच्छा अथवा बुरा उसका असर बालक पर अवश्य होता है। यदि बालक किसी ऐसे समाज में रहता है , जहां सुख – सुविधाएं कम मिले तो इसका भी प्रतिकूल असर उसके व्यवहार में देखने को मिलता है।