वृद्धि और विकास का सिद्धांत/bal vikas or shiksha shastra pdf notes in Hindi

वृद्धि और विकास का सिद्धांत/bal vikas or shiksha shastra pdf notes in Hindi

 

वृद्धि और विकास का सिद्धांत/ vikas pdf  Test in Hindi for All Exams ,Ctet/mptet/uptet/Rtet

वृद्धि और विकास का सिद्धांत/bal vikas or shiksha shastra pdf notes in Hindi
वृद्धि और विकास का सिद्धांत/bal vikas or shiksha shastra pdf notes in Hindi

नमस्कार दोस्तों , इस आर्टिकल में हमने  ” वृद्धि और विकास का सिद्धांत/bal vikas or shiksha shastra pdf notes in Hindi  ” के प्रश्नों का एक – एक करके संकलन किया है। साथ ही इस पीडीऍफ़ में हमने ” बाल विकास और शिक्षा शास्त्र ” के सभी topics को विषयवार cover किया है। इस नोट्स की विशेषता यह है , कि – इसमें आपको पढ़ने , समझने और याद करने में आसानी होगी। कियोकि इन नोट्स को आपके बालविकास एवं  शिक्षा – शास्त्र को समझने और याद करने की समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

 
short notes Part-6 

अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत

वृद्धि और विकास के सिद्धांत के अंतरगर्त निम्नलिखित सिद्धांत आते है ,जो इस प्रकार है। 
  •  निरंतरता का सिद्धांत। 

 

  •  तीव्र गति का सिद्धांत। 

 

  •  सामन्य से विशेष की ओर। 

 

  •  वैयक्तिक भिन्नताओं का सिद्धांत। 

 

  •  वंशानुक्रम और वातावरण का सिद्धांत। 

 

  •  परिपक्वता का सिद्धांत। 

 

  • एकीकरण का सिद्धांत। 

 

    •  विकास की दिशा। 

 

  • भविष्यवाणी का सिद्धांत। 

 वृद्धि और विकास का क्या अर्थ है  अथवा वृद्धि और विकास का क्या अर्थ है 

 

 

1 – वृद्धि –  वृद्धि का अर्थ , कि शरीर के किसी अंग की वृद्धि होना , जो कि हमे प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे सकती है। जैसे कि – लम्बाई का बढ़ना। अर्थात वृद्धि मात्रात्मक होती है।  इसके अलावा वृद्धि की कुछ विशेषताएं इस प्रकार है। 
  •  वृद्धि को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा  सकता है। 

 

  •  वृद्धि मात्रात्मक होती है। 

 

  • वृद्धि सदैव समान गति से नहीं होती है। 

 

  •  वृद्धि जीवनभर नहीं चलती है। 

 

  • वृद्धि का एक समयकाल होता है। 

 

  • शारीरिक वृद्धि और मानसिक वृद्धि एक दूसरे को प्रभावित करती है। 

 

2 – विकास – विकास का दायरा बड़ा होता है , जिसमे वृद्धि शामिल होती है। अर्थात वृद्धि होना भी विकास के अंतरगर्त ही आता है।

 

इसके अलावा विकास  की कुछ विशेषताएं इस प्रकार है।  

  • विकास प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार होता है।

 

  •  विकास  दिखाई भी देता है और नहीं भी देता है। 
  • विकास जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। 

 

  • विकास कभी न रुकने वाली प्रक्रिया है। 

 

  • विकास के अंतरगर्त शारीरिक विकास और मानसिक विकास दोनों आते है। 

वृद्धि और विकास के बीच अंतर क्या है

वृद्धि और विकास में अंतर  –  वृद्धि और विकास में निम्नलिखित अंतर है , जो इस प्रकार है ।
 
वृद्धि और विकास में अंतर
 
विकास –   विकास आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।    विकास का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है।  जिसमे हमारे सपूर्ण विकास के क्षेत्र को शामिल किया जाता है।  जिसमे हमारा – शारीरिक विकास और मानसिक विकास दोनों आते है।  विकास अपने आप एक विस्तृत अर्थ को लिए हुए है । विकास के अंतरगर्त – ” वृद्धि ” एक छोटा सा भाग है । या ये कहे कि – ” वृद्धि ” ही विकास के अंतरगर्त आती है ।
वृद्धि  –  वृद्धि  हमारे विकास की प्रक्रिया के अंतरगर्त होने वाली एक – छोटा सा भाग है।  जिसमे  केवल  ” वृद्घि ” को ही शामिल किया जाता है।  वृद्धि का समयकाल एक निश्चित होता है , अर्थात वृद्धि एक निश्चित समय तक ही होती है।  अर्थात – संपूर्ण विकास में होने वाला एक छोटा सा भाग है। 
 
⇀ विकास के अंतगर्त –  –  कार्य कुशलता , कार्य क्षमता , व्यवहार आदि  विभिन्न प्रकार की क्रियाओ को शामिल किया जाता है। 
जबकि वृद्धि के अंतरगर्त –  बालक के आकार का बढ़ना , लम्बाई का बढ़ना आदि विभिन्न तथ्यों को शामिल किया जाता है। 
 
⇀ विकास एक ऐसी प्रक्रिया है , जो कि  व्यक्ति के जीवन में ” जीवन -पर्यन्त ” चलती रहती है। कभी भी रूकती नहीं है , जब तक मनुष्य जीवित रहता है ,तब तक विकास की क्रिया चलती रहती है।  
जबकि ” वृद्धि ” एक निश्चित समय काल तक ही चलती है ।  अर्थात वृद्धि विकास की तरह कभी भी जीवन भर नहीं चलती है।  वृद्धि की एक निश्चित समय सीमा या समय काल होता है 
 
⇀ विकास के अंतगर्त ” वृद्धि ” की सभी क्रियाओ को शामिल करते है , जबकि  ” वृद्धि ” होने का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं होता है , कि  उसमे ” विकास ” भी हो रहा है।  कियोकि  वृद्धि का दायरा सीमित है , जबकि विकास का दायरा विस्तृत है। 
 
10 – मानसिक विकास ⇀ मानसिक विकास एक ऐसा विकास होता है , जो निरंतर चलता रहता है।  अर्थात जैसा की – हम जानते है कि  – हमारे शारीरिक विकास की एक समय सीमा अथवा काल होता है , जिसके बीच में ही शारीरिक विकास होता है , या ये कहे की एक निश्चित समय तक ही हमारा शारीरिक विकास होता है। 
जबकि हमारा मानसिक विकास निरंतर चलता रहता है। मानसिक सा मनो शाररिक विकास के अंतरगर्त – विभिन्न तरह के अन्य विकास को भी शामिल किया जाता है। 
जैसे कि  –
 ⇀मानसिक विकास होना। 
⇀  सामाजिक विकास होना। 
⇀  सामाजिक विकास होना। 
 
11 – इसके अलावा यदि हम भारतीय – मनीषियों की बात करे , तो हम देखते है कि भारतीय मनीषियो ने – ” मानव विकास को 7 (सात ) भागो में विभाजित किया है।  जो क़ि इस प्रकार है। 
भारतीय मनीषियो अनुसार 
(i )  गर्भावस्था – इसके अंतरगर्त – ” गर्भाधान से जन्म तक ” के समय काल को शामिल किया जाता है। 
 (ii ) शैशववस्था   – इसके अंतरगर्त – ” जन्म  से 5 वर्ष तक ” के समयकाल को शामिल किया जाता है। 

 

(iii )  बाल्यावस्था – इसके अंतरगर्त – ” पांच वर्ष से 12 वर्ष तक ” के समयकाल को शामिल किया जाता है। 
(iv ) किशोरावस्था – इसके अंतरगर्त – ” 12 वर्ष से 18 वर्ष तक ” के समय काल को शामिल किया जाता है। 
(v ) युवा वस्था – इसके अंतरगर्त – ” 18  वर्ष से 25 वर्ष तक ” के समयकाल को शामिल किया जाता है। 
(vi ) प्रौढ़ावस्था – इसके अंतरगर्त  – ” 25 वर्ष से 55 वर्ष तक ” के समय काल को शामिल किया जाता है। 
(vii )  वृद्धावस्था – इसके अंतरगर्त – ” 55 वर्ष से मृत्यु तक ” के समयकाल को शामिल किया जाता है। 

(1 ) सामान्य से विशेष की ओर – एक बालक विकास की प्रक्रिया सदैव सामान्य से विशेष की और चलती है। एक बालक के बचपन से बुढ़ापे तक की क्रिया – सामान्य से विशेष की और चलती रहती है।  
अर्थात→ एक बालक बचपन में अपनी ” प्रतिक्रियाओं ” को रो कर प्रकट करता है। 
 
 वही जब वह बालक बड़ा हो जाता है, तो अभिव्यक्ति को “बोल कर ” प्रकट करता है।  
इस प्रकार विकास की क्रिया सदैव सामान्य से विशिष्ट की और चलती है। जिसमे कि बालक की शारीरिक वृद्धि और मानसिक वृद्धि दोनों को शामिल किया जाता है। 
(2 ) विकास गति अलग होना – बालक में वृद्धि और विकास सदैव एक सा या एक जैसा नहीं होता है।  उसकी गति में परिवर्तन होता रहता है।  
उदहारण के लिए – 
→ शैशावस्था में बालको के विकास व वृद्धि की गति तेज़ रहती है। फिर वह गति धीमी या मंद हो जाती है। 
 
→ फिर  यह विकास  की  गति पुनः किशोरावस्था में “तीव्र ” होती है। 
→ फिर यह गति ” मन्द ” पड़  जाती है। 
अतः  उपरोक्त तथ्य के आधार पर हम कह सकते है।  कि विकास की गति सदैव एक जैसी या एक सी नहीं होती है।  किसी भी बालक में विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विकास और  वृद्धि  का क्रम भिन्न – भिन्न रहता है। जो कि कभी एक सा नहीं होता है। 
(3 ) परस्पर सम्बद्ध का सिद्धांत – बालक के “परस्पर सम्बन्ध के सिद्धांत ” का आशय यह है , कि  बालक के किसी एक भाग के विकास होने पर उसका दूसरा भाग भी उससे प्रभावित होता है। जिसके अंदर बालक के विकास के समस्त आयाम आते है। जिसमे बालक का  सामाजिक विकास , शारीरिक विकास , मानसिक विकास , संवेगात्मक विकास , आदि आते है।
जैसे कि –

→ यदि  बालक का शारीरिक विकास अच्छा होता है , तो उसका सामाजिक विकास भी अच्छा होगा।

 

→ वही दूसरी और यदि बालक का शारीरिक  विकास  अच्छा नहीं होता है , तो इसकी सम्भवना बढ़ जाती है , कि उस बालक का सामाजिक विकास भी उतना अच्छा नहीं होगा।  साथ ही साथ उस बालक के विकास के अन्य क्षेत्र भी इससे प्रभावित होंगे।

→ अतः  इस प्रकार इस सभी विकास के आयामों का एक – दूसरे से परस्पर सम्बन्ध होता है। इसलिए बालक के किसी एक क्षेत्र का विकास उसके दूसरे क्षेत्र को भी प्रभावित अवश्य करता है।

(4 ) एकीकरण का सिद्धांत  –    इस सिद्धांत के अंतरगर्त – बालक प्रारम्भ में शरीर के सभी अंगो को चलाना सीखता है। उसके बाद बालक शरीर के अंगो के विभिन्न भागो को अलग – अलग चालना सीखता है। साथ ही साथ बालक इन अंगो को और उनके भागो को अलग – अलग चलाते समय “सामंजस्य ” (Harmony) भी स्थापित करना सीखता है और  उनका “एकीकरण ” करता है।

अर्थात फिर बालक अंगो और उनके भागो के एक साथ चलाकर उनमे ” एकीकरण ” भी स्थापित करने लगता है।  यही सिद्धांत बालक के “एकीकरण “के सिद्धांत के अंतरगर्त आता है।
उदहारण के लिए –

→ पहले बालक हाथ को चलाना  सीखता है , फिर उसके बाद वो उंगलियों को चलाना सीखता है।

→ उसके बाद बालक हाथ एवं उंगलियों दोनों को एक साथ चलाना सीखता है। अर्थात वह बालक हाथ और उंगलियों में सामंजस्य स्थापित करना सीख जाता है।

(5 ) विकास की भविष्यवाणी –  विकास की भविष्यवाणी से आशय है , कि जब किसी बालक की वर्तमान विकास की गति और वृद्धि को देखकर उसके भविष्य के लिए  यदि कोई भविष्यवाणी कर दी जाती है।  यही विकास की भविष्यवाणी कहलाती है।

उदहारण के लिए –

→ यदि किसी बालक का विकास और वृद्धि की गति तेज़ है।  तो इसकी यह पूरी सम्भवना है , कि आगे भी उस बालक के विकास की गति इसी प्रकार से होगी।


→ ठीक इसके विपरीत यदि किसी बालक के विकास एवं वृद्धि की गति मंद है। तो आगे भी उसी प्रकार से होगी।

परन्तु इस तथ्य पर बहुत से मनोवैज्ञानिको के मतभेद है। कि विकास पूर्व में तय किया जा सकता है , अथवा नहीं।

(6 ) पुनर्बलन का सिद्धांत – पुनर्बलन सिद्धांत के प्रतिपादक ” डोलार्ड और मिलर ” है।

(7 )  सामजिक अधिगम का सिद्धांत –  सामाजिक अधिगम  सिद्धांत के  प्रतिपादक ” बंदूरा और बाल्टर्स ” है।
सामजिक अधिगम के सिद्धांत में केवल ” वातावरण ” को ही अधिक महत्व दिया जाता है , वनस्पत – “वशानुक्रम “
इन्होने सामाजिक अधिगम के सिद्धांत को अधिक विस्तृत रूप में स्पस्ट करने के लिए विभिन्न तरह के प्रयोग किये।जिसमे से एक  प्रयोग इस प्रकार है।
इन्होने बालको को एक ” फिल्म ” दिखाई। इस फिल्म के तीन भाग थे, जिनमे अभिनेता  के  तीन अलग – अलग चरित्र-चित्रण थे।

जैसे कि –

→ फिल्म के प्रथम भाग में – ” अभिनेता ” (actor) का  व्यवहार बहुत ही ” आक्रामक ” होता है। जिस वजह से उसे दण्ड मिलता है।


→ फिल्म के दूसरे भाग में – “अभिनेता ” का  “आक्रामक व्यवहार ” होता है , जिसके  लिए उसे पुरूस्कार मिलता है।


→ फिल्म के तीसरे भाग में – ” अभिनेता ” को उसके आक्रामक व्यवहार के लिए  ” न – दण्ड मिलता है ‘ और ” न पुरूस्कार मिलता है।  “

→फिल्म के इन तीनो किरदारों को अलग – अलग ढंग से दिखाने के बाद जब बालको से इस फिल्म के सम्बन्ध में पूछा गया कि उन्हें इन तीनो किरदारों  में से  कौन सा किरदार सबसे अच्छा लगा ? …  अर्थात वे बालक किस किरदार का अनुकरण करना चाहेंगे।

→  इस पर सभी बालको का उत्तर होता था ,कि  वे – फिल्म के “प्रथम भाग ” को पसंद नहीं करते है , और उस फिल्म के प्रथम भाग का “अनुकरण ” नहीं करना चाहेंगे।

अतः इस प्रकार हम कह सकते है , कि  बालक सर्वाधिक अपने चारो और के वातावरण से प्रभावित होता है।

➤  बाल्यावस्था में बालक  “पर्यावरण ” से प्रभावित होता है। 
➤  विकास की दिशा सदैव निश्चित  होती है। 
➤ ड्रेवर के अनुसार – ” विकास प्राणी में प्रगतिशील परिवर्तन है।  जो की निश्चित लक्ष्यों की और निंरतर
निर्देशित होता रहता है।  “
➤ डोलार्ड और मिलर के अनुसार – ” अधिगम के प्रमुख अव्ययों को चार प्रकार से बांटा जा सकता है “